Surdas Ke Dohe – 12 Best सूरदास के दोहे अर्थ सहित।

Surdas Ke Dohe: सूरदास जी भक्ति काल के सगुण समय के महाकवि थे। एक ऐसे इंसान जो श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे।

Editorial Team

Surdas Ke Dohe: सूरदास जी भक्ति काल के सगुण समय के महाकवि थे। एक ऐसे इंसान जो श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे। और यही नहीं, सूरदास जी को हिन्दी साहित्य की अच्छी जानकारी थी। सूरदास जी की रचनाओं में कृष्ण भक्ति का भाव दिखाई देता हैं। जो एक बार भी सूरदास जी की रचनाओं को पढ़ता है, वो कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है।

उन्होंने अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण के रुप का वर्णन श्रृंगार और शांत रस में किया है। और वही उन्होंने अपनी रचनाओं में उनकी बाल लीलाओं और उनके सुंदर रूप ऐसे लिखा मानो उन्होंने खुद अपनी आंखों से नटखट कान्हा की लीलाऐं देखी हो।

आज हम आपको अपने इस लेख में महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित सूरदास के दोहे और अर्थ, Surdas Ke Dohe with Meaning के बारे में बताएंगे। यहां आपको सूरदास जी के 5 दोहे नहीं अपितु 12 लोकप्रिय दोहे दिए गए है जो आपको जरूर पसंद आएंगे। यह लेख Class 8 तथा Class 10 के विद्यार्थियों के लिए भी महत्वपूर्ण है। न सिर्फ सूरदास की रचना इन्हे प्रेम भाव समझाती है बल्कि एक बेहतर नज़रियाँ देती है चीज़ों को देखने का।

Surdas Ke Dohe In Hindi

Surdas का जीवन परिचय।

इतिहासकारों के अनुसार Surdas / सूरदास जी का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव (वर्तमान का आगरा जिला) के एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास के पिता का नाम रामदास था, जो कि एक गायक थे। सूरदास को आमतौर पर वल्लभ आचार्य की शिक्षाओं से अपनी प्रेरणा प्राप्त करने के रूप में माना जाता है। सूरदास का बचपन मथुरा और आगरा के बीच स्थित गऊघाट पर ही बिता था।

सूरदास जी कृष्ण भक्ति शाखा के कवि थे इन्हे उनकी प्रसिद्ध रचना “सूर सागर” के लिए जाना जाता है। ये ब्रजभाषा भाषा के कवि थे, जिन्हे ब्रजभाषा का महान कवि बताया जाता है। सूरदास द्वारा रचित 5 प्रमुख रचनाओं में सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयंती, ब्याहलो आदि शामिल है।

Surdas जी की मृत्यु 1642 विक्रमी (1580 ईस्वी) को गोवर्धन के पास पारसौली गाँव में हुई थी। सम्राट महाराणा प्रताप एवं अकबर सूरदास जी की रचनाओं से काफी प्रभावित थे। आगे आपको सूरदास जी द्वारा रचित Famous सूरदास जी के दोहे (Surdas Ke Dohe) अर्थ सहित बताये गए है।

Surdas Ke Dohe | सूरदास के दोहे हिंदी में

(Surdas Ke Dohe In Hindi With Meaning)

सूरदासजी का दोहा – 1

Doha 1: “ मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥ “

अर्थ: सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण धन्य है जहां आप गायों को चराते हैं। और अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उसी भूमि पर याद करने से मन को शांति मिलती है।

सूरदास कहते है की अरे मन! तू क्यो इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से हटकर सुख मिलता है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती हैं। सूरदास कहते हैं की ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्व बताया है।

सूरदासजी का दोहा – 2 

Doha 2: ” बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे को हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥ “

अर्थ: राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा की हे गोरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो?

हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी की नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता हैं।

तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।

सूरदासजी का दोहा – 3 

Doha 3: “जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।।
मेरे लाल को आउ निंदरिया कहे न आनि सुवावै ।
तू काहै नहि बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै ।।
कबहुँ पलक हरि मुंदी लेत है कबहु अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै ।।
इही अंतर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सुर अमर मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनि पावै ।।”

अर्थ: सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया हैं। वह कहते हैं की मैया यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में झुला रही है। कभी तो वह पालने को हल्कासा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी चूमने लगती हैं।

ऐसा करते हुए जो मन में आता हैं वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती हैं। इसलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं की आरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता हैं।

जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी पलकें मूंद लेते हैं और कभी होठों को फड़काते हैं। जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा की अब तो कान्हा सो ही गया हैं। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं।

इसी में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब उन्हें सुलाने के उद्देश से पुन: मधुर मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते है की सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।

सूरदासजी का दोहा – 4 

Doha 4: ” हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।
बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत।
कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर आवत।।
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।।
दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।। ”

अर्थ: राग रामकली में आबध्द इस पद में सूरदासजी जी ने भगवान् कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया हैं। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता हैं वो गाते हैं। वह छोटे छोटे पैरो से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं।

कभी वह भुजाओं को उठाकर कली श्वेत गायों को बुलाते है, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं और घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं।

श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन में प्रसन्न होती हैं। सूरदासजी कहते हैं की इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य हर्षाती हैं।

सूरदासजी का दोहा – 5 

Doha 5: ” जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी।।
हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।।
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी।।
लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।। ”

अर्थ: सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान्भकी बाल लीला का रोचक वर्णन हैं। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आयी। वह बोली की हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए।

पीछे से मैं भी अपने भवन के पास ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा की माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई हैं तो मुझे बहुत पछतावा हुआ।

जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनकी आंखों में आंसू भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।

सूरदासजी का दोहा – 6

Doha 6: “ अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।
गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।। ”

अर्थ: सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबध्द है। भगवान् बालकृष्ण अब मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया, नंदबाबा को बाबा और बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं।

इतना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो  कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया के नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं की लल्ला गाय तुझे मारेंगी।

सूरदास कहते हैं की गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता हैं। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयाँ दे रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं की,”हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।”

सूरदासजी का दोहा – 7

Doha 7: “ कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात।
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।। ”

अर्थ: यह पद रामकली का हैं। एक बार कृष्ण माखन सूरदास के दोहे और अर्थ खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे की रोते रोते नेत्र लाल हो गये। भौंहें वक्र हो गई और बार बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकालते थे।

घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धुल – धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते।

सूरदास कहते हैं की श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक एक पल भी छोड़ने को न हुई। अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।

सूरदासजी का दोहा – 8

Doha 8: ” मैं नहीं माखन खायो मैया। मैं नहीं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।।
देखि तुही छींके पर भजन ऊँचे धरी लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।।
मुख दधि पोंछी बुध्दि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो।
डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।।
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।। ”

अर्थ: सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद राग रामकली में बध्द हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिध्द है। वैसे तो कान्हा ग्वालिनों के घरो में जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा मैया ने उन्हें देख लिया।

यशोदा मैया ने देखा की कान्हा ने माखन खाया हैं। तो उन्होंने कान्हा से पूछा की क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब बालकृष्ण ने अपना पक्ष किस तरह मैया के सामने प्रस्तुत करते हैं, यही इस दोहे की विशेषता हैं।

कन्हैया बोले,”मैया! मैंने माखन नहीं खाया हैं। मुझे तो ऐसा लगता हैं की ग्वाल ने ही मेरे मुख पर माखन लगा दिया है।” फिर बोले की मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा हैं मेरे हाथ भी नहीं पहुच सकते हैं। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा था उसे छिपा लिया।

कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन में मुस्कुराने लगी और कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदासजी कहते हैं यशोदा मैया को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रम्हा को भी कम है।

सूरदासजी का दोहा – 9

Doha 9: “ चरण कमल बंदो हरी राइ ।
जाकी कृपा पंगु गिरी लांघें अँधे को सब कुछ दरसाई।।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले सर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय बार- बार बंदौ तेहि पाई।। ”

अर्थ: सूरदास के अनुसार श्री कृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है। अंधे को सब कुछ दिखाई देने लगता है। बहरे व्यक्ति सुनने लगता है। गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है। और गरीब व्यक्ति अमीर हो जाता है। ऐसे दयालु श्री कृष्ण के चरणों का पूजन कौन नहीं करेगा।

सूरदासजी का दोहा – 10

Doha 10: “ अबिगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यो गूँगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै ।।
परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै ।।
रूप रेख मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै ।
सब बिधि अगम बिचारहि,तांतों सुर सगुन लीला पद गावै ।। ”

अर्थ: निराकार ब्रह्म का चिंतन ज़रूरी है। यह समतन और वाणी का विषय नही है। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाए और उससे उसका स्वाद पूछा जाए तो वह मिठाई का स्वाद नही बता सकता है। मिठाई के रस का स्वाद तो उसका मन ही जानता है। निराकार ब्रह्म का न रूप है ना कोई नगुण है। इसलिए मैं यहाँ स्थिर नही रह सकता। सभी तरह से वह अगम्य है। अतः सूरदास जी सगुन ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझते है ।

सूरदासजी का दोहा – 11

Doha 11: “ मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायौ ।
मोसो कहत मोल को लीन्हो, तू जसमति कब जायौ ?
कहा करौ इही के मारे खेलन हौ नही जात ।
पुनि -पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात ?
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत श्यामल गात ।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसकात ।
तू मोहि को मारन सीखी दाउहि कबहु न खीजै।।
मोहन मुख रिस की ये बातै, जसुमति सुनि सुनि रीझै ।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहै गोधन की सौ,हौ माता थो पूत ।। ”

अर्थ: बाल कृष्ण की माई यशोदा से बलराम जी की शिकायत करते हुए कहते है कि मैया दाऊ मुझे बहुत सताते है। मुझसे कहते है कि तू गोद लिया हुआ है। यशोदा मैया ने तुझे पैदा नहीं किया। मैं क्या करूँ इसी क्रोध में, मैं खेलने नही जाता। वह बार-बार कहते है,”तेरी माता कौन है? तेरे पिता कौन है? नंद बाबा तो गोरे है। यशोदा मैया भी गोरी है। तू सांवरे रंग वाला कैसे है? दाऊ जी इस बात पर सभी ग्वाले मुझे चुटकी देकर नचाते है। और फिर सब हँसते है और मुस्कराते है। तूने तो मुझे ही मारना सीखा है। दाऊ को कभी डांटती भी नही। सूरदास जी कहते है कि मोहन के मुख से ऐसी बाते सुनकर यशोदा जी मन ही मन मे प्रसन्न होती है। वे कहती है कि कन्हिया सुनो बलराम तो चुगलखोर है और वो आज से नही बल्कि जन्म से ही धूर्त है। हे श्याम मैं गायों की शपथ कहकर कह रही हूँ कि मैं तुम्हारी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।

सूरदासजी का दोहा – 12

Doha 12: “ मैया मोहि मैं नही माखन खायौ ।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ।।
मैं बालक बहियन को छोटो, छीको किहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर पड़े है, बरबस मुख लपटायो ।।
तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो ।।
यह लै अपनी लकुटी कमरिया, बहुतहिं नाच नचायों।
सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो ।। ”

अर्थ: यह बहुत ही प्रसिद्ध पद है। श्री कृष्ण की बाल लीला का वर्णन अत्यंत सहज भाव से सूरदास जी करते है: कन्हैया कहते है कि मैया मैंने माखन नही खाया है ।सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हो। चार पहर भटकने के बाद शाम होने पर वापस आता हूँ।

मैं छोटा बालक हूँ। मेरी बाहें छोटी है, मैं छीके तक कैसे पहुँच सकता हूँ? मेरे सभी दोस्त मेरे से बैर रखते है। इन्होंने मक्खन जबरदस्ती मेरे मुख में लिपटा दिया है। मां तू मन की बहुत ही भोली है। इनकी बातो में आ गईं है। तेरे दिल मे जरूर कोई भेद है, जो मुझे पराया समझ कर मुझ पर संदेह कर रही हो। ये ले अपनी लाठी और कम्बल ले ले। तूने मुझे बहुत परेशान किया है। श्री कृष्ण ने बातों से अपनी मां का मन मोह लिया। मां यशोदा ने मुस्कराकर कन्हैया को अपने गले से लगा लिया।

तो दोस्तों यहाँ आपने जाना किस तरह सूरदासजी (Surdas) कृष्ण भक्ति में मग्न रहते थे और कृष्ण की लीलाए किस तरह उन्होंने अपने दोहो के द्वारा व्यक्त की है।

ये थी हमारी एक छोटी सी कोशिश आप तक सूरदासजी के दोहे (Surdas Ke Dohe) पहुंचाने की, हम आशा करते है आपको यह लेख बहुत पसंद आया होगा।

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